गांधी जी और हमारी सरकारी नौकरी
आज गांधी जयंती है। गांधी जी हमारे राष्ट्रपिता हैं। मैं उनका पूरा सम्मान करती हूँ।
आज मुझे 21 साल पुराना एक वाक्या याद आया जो गांधी जी से ही संबधित है।
बात 1999, 3 अक्टूबर की है। मैं उन दिनों एम काॅम फ़र्स्ट इयर में थी और साथ में कम्प्यूटर कोर्स भी कर रही थी। तब तक मेरा टीचर ट्रेनिंग का कोर्स भी पूरा हुए दो साल हो गए थे। उन दिनों मेरे और मेरी सहेली मिली के सिर पर सरकारी नौकरी का भूत सवार था। मैं और मिली दोनों बस दिल्ली में जितनी भी सरकारी नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षाऐं होती , हमारी योग्यता के हिसाब से अगर हम फिट बैठते तो उन परिक्षाओं में हम जरूर शामिल होते। सारे फार्म भरने ,पोस्ट ऑफिस, बैंक, किताबों की दुकाने कहीं भी जाना होता हम साथ ही जाते। ऐसे ही जब हम डी.आर. एस. बी. का फार्म जमा करने के अंतिम दिन कार्यालय पहुंचे, फार्म लिया उसे भरने के लिए कहाँ बैठे ,जगह ही नहीं मिल रही थी कयोंकि हमारे जैसे बहुत से लोगों की भीड़ जमा थी। तब मिली की नज़र कार्यालय के सामने वाली नाली की तरफ गई। वहां थोडी ऊंची और साफ जगह थी एक लड़के को वहां बैठ कर फार्म भरते देखा मिली खुशी से चिल्लाई कवि जल्दी कर जगह मिल गई। (कवि तो मैं अभी हाल में बनी हूं पर वो हमेशा शुरू से कवि ही बोलती आई है मुझे ) मैने कहा मुझे तो कहीं सीधा खडे़ होने की भी जगह नहीं दिख रही तुझे कहां दिख गई। वो बस मेरा हाथ पकड़ कर ले गयी मुझे वहां नाली के पास और बैठ गई वहाँ फटाफट शुरु कर फार्म भरना समय नही है हमारे पास। मैं भी क्या करती बैठ गई उसके साथ वहीं ।इलाका बहुत बदबूदार था। हमारी देखा देखी बाकी सारे लोग, सब वहीं आ गए। उस समय सबके लिए वो सरकारी नौकरी दिख रही थी बस और बाकी किसी बात का किसी को कोई फर्क ही नहीं पा रहा था। तभी हमारे कम्पूटर कॉलेज ई. टी. एन. टी. का ही अजय जोकि मिली के बैच का था हमारे पास आया हाय हैलो का भी समय नही था हमारे पास उसने भी अपना काम पूरा किया। जैसे तैसे फार्म जमा कर दिया समय पर। लौटते समय हम तीनों साथ थे और एक अजीब दुर्गंध भी थी हमारे साथ वही नाली वाली। अजय हँस रहा था हम तीनों महात्मा गांधी के तीन बंदर लग रहे हैं। मिली कहने लगी क्या करे यार मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। मैंने कहा प्लीज़ मत बोलो ऐसा , कल ही ना गांधी जयंती था। बुरा मान जाएंगे और कहीं हमारी सरकारी नौकरी भी ना छिन जाए। और ऐसा ही हुआ जब हम तीनों में से कोई भी उस परीक्षा को पास नहीं कर पाया। रिज्लट देखने के बाद हम जोर से हंस रहे थे लो मान गए बुरा गांधी जी। उससे पहले भी कई परीक्षाऐं दी थी और उसके बाद भी देते रहे पर नतीजा वही रहा। अजय तो कोर्स खत्म होने के बाद कभी मिला नहीं पर हाँ मिली अभी भी मेरी पक्की सहेलियों में से एक है। अभी भी जब भी उससे फोन पर बात होती है वो घटना याद आती है। वो बोलती हैं काश थोड़ी मेहनत और कर लेते तो आज किसी सरकारी दफ्तर में काम कर रहे होते। और मेरे मन में यही बात आती है कि अगर हम गांधी जी का मजाक नहीं उडा़ते तो हमें सरकारी नौकरी जरूर मिल गई होती। अभी हम दोनों अलग अलग राज्यों में अपनी अपनी गृहस्थी में व्यस्त हैं। मैने लिखना शुरू किया तो वो बहुत खुश हुई। अब सरकारी नौकरी की तो कोई उम्मीद नहीं है अब तो उस बारे में सोचना ही छोड़ दिया है हां अब शायद गांधी जी अपनी दयादृष्टी मुझ पर डाल दें लेखन कार्य जो प्रतिलिपि के माध्यम से शुरू किया है वहीं सफलता मिल जाए। और हां मिली अभी भी आई.ऐ.एस. की तैयारी करना चाहती है। बस ये सरकारी नौकरी में उम्र की सीमा को थोड़ा आगे बढा़ दिया जाए। 45साल कैसा रहेगा मिली.... 3-4साल में तैयारी आराम से हो जाएगी तेरी। बोल तो गांधी जी से पैरवी करूं।
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कविता झा'काव्या कवि'
(मेरी इस संस्मरण से गांधी जी बुरा तो नहीं मानेंगे...
कोई गलती हुई हो तो माफ कीजियेगा। किसी की भावना को ठेस पहुंचाने का इरादा नहीं था इस रचना को लिखते वक्त)
# लेखनी प्रतियोगिता (गांधीजी की जयंती के अवसर पर आज के युवा की दृष्टि कोण से
Niraj Pandey
11-Oct-2021 07:22 PM
वाह बहुत ही बेहतरीन
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Seema Priyadarshini sahay
01-Oct-2021 09:29 PM
अच्छा संस्मरण।लिखते रहिए.. आगे बढ़ते रहिये
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Sneh lata pandey
01-Oct-2021 09:18 PM
लाज़वाब संस्मरण👍👍🌹🌹
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